Thursday, April 24, 2008

मटियानी : विलक्षण कथाकार व दयनीय विचारक - राजेंद्र यादव

"टियानी उन कहानीकारों में हैं जिनके पास सबसे अधिक संख्या में, 10-12 की संख्या में ए-वन कहानियां हैं. प्रेमचंद सहित हम सब के पास 5-6 से ज्यादा टॉप की कहानियां नहीं हैं जो कहानी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्वस्तर पर खड़ी हो सके. मेरे पास 2-4, भारती और राकेश के पास दो चार होंगी. बाकी की सब एक मिनिमम स्टैंडर्ड हैं परंतु जिसे
आउटस्टैंडिंग कहानी कहते हैं वो नहीं है. उनके पास सबसे ज्यादा हैं. हमलोगों में सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली आदमी.उनमें अनुभव की आग और तड़प है. हमलोग कहीं न कहीं बुकिश हो जाते हैं. वे जिंदगी से उठाई गई कहानियां लिखते थे."
- राजेंद्र यादव

वरिष्ठ कथाकार और 'हंस' के संपादक राजेंद्र यादव हिंदी के संभवतः सर्वाधिक चर्चित और साथ ही विवादास्पद लेखक हैं. शैलेश मटियानी से इनकी काफी घनिष्ठता भी रही परंतु साथ ही कटुता उत्पन्न कर देने वाली झड़पों की लंबी किश्तें भी संबंधों में जुड़ती रहीं. राजेंद्र यादव और शैलेश मटियानी के बीच लड़ाई मूलतः विचारधारात्मक स्तर पर रही. राजेंद्र यादव खुद उनकी कहानियों के भयंकर प्रशंसक रहे हैं. वे मटियानी को हिंदी का एक ऐसा अकेला कहानीकार मानते हैं जिनके पास सबसे ज्यादा विश्वस्तरीय कहानियां है, यहां तक कि प्रेमचंद से भी ज्यादा. विचारधारात्मक स्तर पर मटियानी के धुर विरोधी परंतु रचनात्मकता के स्तर पर घनघोर समर्थक राजेंद्र यादव से मटियानी पर बात करना मटियानी के कई पक्षों को खोलना है. शैलेश मटियानी की मृत्यु को बीते 24 अप्रैल को सात साल पूरे हो गए. करीब छह साल पहले मैंने राजेंद्र यादव के साथ मटियानी पर बातचीत की थी. पढ़िए कुछ अंश.

अत्यंत महत्वपूर्ण कथाकार होने के बावजूद शैलेश मटियानी के व्यक्तित्व में ऐसा क्या रहा जिसके कारण
उन्हें वह अपेक्षित सम्मान न मिल सका जिसके वो निस्संदेह हकदार थे?

देखो, दिक्कत यह है कि शैलेश मटियानी के व्यक्तित्व के दो पक्ष हैं- एक तो रचनाकार और दूसरा विचारक. जो इधर पिछले 10-15 वर्षों में बहुत सामने आता रहा वह उनका विचारक पक्ष है. हालांकि इस बीच में उन्होंने 'माता', 'अहिंसा' और 'अर्द्धांगिनी' जैसी अद्‌भुत कहानियां लिखीं. यानी ये हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है. 'अर्द्धांगिनी' को तो मैं एक बहुत बड़ा लैंडमार्क मानता हूं. लेकिन शोर उनका ज्यादा उनके विचारक के कारण रहा . शोर भी नहीं कहूंगा बल्कि वे अपने को ज्यादा प्रोजेक्ट करते रहे विचारक की तरह.

अब यहां एक दूसरा प्वाइंट है. हम सब जानते हैं कि उनकी शिक्षा नहीं हुई थी. मैट्रिक का इम्तहान वे नहीं दे पाए थे. पहाड़ की जो स्थितियां थीं उसमें उन्हें भागकर बंबई जाना पड़ा. बहुत ही विकट स्थितियां थीं. आर्थिक रूप से और मानसिक रूप से भी. बंबई में उन्हें बहुत विकट जीवन जीना पड़ा.यानी फुटपाथ पर उन्हें बहुत समय बिताना पड़ा. मुफ्त के लंगरों या मंदिरों में या जहां मुफ्त खाना मिलता था, उन लाइनों में वे लगे. वहां से इन स्थितियों में गुजरकर वे आये. उन्होंने खुद लिखा है कि जब आवारा बच्चों की तरह पुलिस वाले उन्हें पकड़कर ले जाते थे तो उन्हें बड़ा अच्छा लगता था कि सोने की जगह मिलेगी और खाना मिलेगा. उन संघर्षों से आये हुए वे आदमी थे जिसके पास शिक्षा का बड़ा सहारा न हो, जिसने अपनी लेखकीय प्रतिभा पर अपनी जिंदगी, जगह बनाई.

जिस वक्त वे एक ढाबे में लगभग एक वेटर का काम कर रहे थे- प्लेटें धोने और चाय लाने का- एक छोटे में ढाबे में, उस वक्त तक उनकी कहानियां 'धर्मयुग' में छपना शुरू हो गई थीं. कितनी बड़ी विडंबना है कि 'धर्मयुग' जैसे सर्वश्रेष्ठ अखबार में जिनकी कहानियां छपना शुरू हो गई हों वो एक छोटे से सड़क के किनारे बने ढाबे में चाय-पानी देने और प्लेट साफ करने का काम कर रहा हो. तो उन स्थितियों में निकलकर, जिसे कहते हैं, गोर्की ने जिसे कहा है, 'समाज की तलछट से आए हुए लोग', वे आये थे. गोर्की ने अपनी आत्मकथा में इसी जीवन को जिया था जिसका नाम रखा था 'मेरा विश्वविद्यालय'. कहते थे कि ये मेरे विश्वविद्यालय हैं यहां से मैंने ट्रेनिंग ली है. मटियानी का स्ट्रांंगेस्ट प्वाइंट ये है. अब धीरे धीरे उनको लगता गया कि वे एक विचारक भी हैं. देश विदेश के विचारकों को समझने का पढ़ने का उन्हें मौका नहीं मिला. अंग्रेजी नहीं जानते थे. लेकिन फिर भी वो अपने ढंग से एक विचारक थे. देश की समझ, राष्ट्र की समस्या, भाषा की समस्या पर वे हमेशा लिखते थे. क्योंकि बिना लिखे रह भी नहीं सकते थे या रह सकना संभव नहीं था, कुछ तो आर्थिक कारणों से.

एक आत्मविश्वास उनमें जबरदस्त था. आत्मविश्वास और साहस. दिक्कत यह थी कि वो हिंदुत्व के उस घेरे से बाहर नहीं निकल पाए. विचार भी अगर उन्हें करना है तो सिर्फ उस पर बात करेंगे. धर्मग्रंथ या किसी इसी तरह की चीज को अगर कोई मानता रहा है तो वे उसे दूसरे ढंग से मानने का आग्रह करेंगे. कहना चाहिए कि घेरा वही था उससे बाहर वे नहीं निकल पाए. कहना चाहिए कि वे हिंदुत्व के पक्षधर और व्याख्याता होकर रह गये. एक अलग तरह से . उनकी चुनौती थी कि ये आर. एस. एस. वाले, ये संत-महात्मा हैं, ये न धर्म समझते हैं न संस्कृति समझते हैं.जो समझना चाहिए उनकी व्याख्या वे खुद देते थे. ये लोग राष्ट्र, राष्ट्रभक्ति, न भाषा जानते हैं. हिंदी एक तरह से उनकी मजबूरी भी थी और उनका लक्ष्य भी था. भाषा की बात बहुत करते थे.

मैं कहूंगा कि एक तरह से एक रूढ़िवादी विचारक के रूप में उन्होंने अपने को प्रोजेक्ट किया. पिछले 10 वर्षों में उन्होंने खुलकर हिंदुत्व का समर्थन करना शुरू कर दिया. 'पांचजञ्य' जैसी पत्रिकाओं में वे लगातार लिखते थे. उससे एक दूरी बढ़ती गई.

मैं खुद यह मानता हूं कि वे एक अद्‌भुत और विलक्षण कहानीकार और बहुत दयनीय विचारक थे. उनके व्यक्तित्व का एक तरह से विघटन या कहना चाहिए 'डिवैल्यूशन' होने का सबसे बड़ा कारण है कि लोगों ने उनके उस पक्ष को भी भुला दिया जो उनका सबसे मजबूत पक्ष था.साहित्य की मुख्यधारा से उनके किनारे पर चले जाने का एक मात्र बड़ा कारण यह रहा.

24 अप्रैल को मटियानी जी की पहली पुण्य तिथि है. क्या कारण है कि हिंदी की साहित्यिक परिधि में मटियानी की पुण्य तिथि के बहाने भी कोई भी कोई आयोजन नहीं हो रहा है?

अगर एक आदमी किसी पार्टी या विचारधारा से प्रतिबद्ध है तो यह जरूरी नहीं कि लोग उनकी एनीवर्सरी आदि मनाएं. अगर नरेंद्र कोहली के साथ कुछ हो जाए तो हम उनके लिए क्यों गोष्ठी करेंगे. होंगे नरेंद्र कोहली उनके लिए बड़े लेखक परंतु जनवादी लेखक क्यों मनायेगा?

लेकिन यह ज्यादती है. क्योंकि शैलेश मटियानी रेणु से पहले आदमी हैं जिन्होंने बहुत सफलता पूर्वक आंचलिक भाषा व आंचलिक संस्कृति का प्रयोग किया. जब रेणु का कहीं पता नहीं था तब उनका 'बोरीवली से बोरीबंदर तक' जैसा उपन्यास आ चुका था. पहाड़ के जीवन पर उनकी अद्‌भुत कहानियां आ चुकी हैं जो वहां की जीवन और वहां की संस्कृति और भाषा निरूपित करती थी. कई और रचनाएं आ चुकी थीं. उनमें रेणु से कम शक्ति नहीं है.उनमें विविधता ज्यादा है. बहुत ज्यादा विविधता है, क्योंकि अपने अनुभव हैं भिन्न-भिन्न तरह के फुटपाथ से लेकर बड़े शहरों तरह तक .

बेटे की हत्या ने उनके जीवन में एक बहुत खास तरह का परिवर्तन पैदा किया और एक पराजय का भाव, प्रारब्ध और नियति के सामने समर्पण का भाव, और धर्म और ईश्वर से एक तरह से इससे निकालने के लिए प्रार्थना का भाव पैदा किया. अपने इस अवमूल्यन के लिए कहीं पर यानी अपने शक्तिशाली लेखन को मार्जिन पर फेंक देने के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं, हमलोग नहीं. हालांकि मैं यह मानता हूं कि हमें उनके विचारपक्ष को एक तरफ डाल देना चाहिए.उसे अलग फेंक सकते हैं. लेकिन उनकी रचनात्मकता हमारे किसी भी बड़े से बड़े लेखक से कम नहीं है. वो बहुत महत्वपूर्ण लेखक हैं और उन पर चाहे हमलोग कुछ करें या न करें कम से कम यह स्वीकृति जरूर होनी चाहिए कि हमारे बीच एक इस तरह का लेखक है जो वास्तविक अर्थ में अपनी जमीन से जुड़ा था, मुहावरे में नहीं. जो 'अर्द्धांगिनी' जैसी कहानी लिख सकता है वह निश्चित रूप से ..... . . वन आफ द ग्रेटेस्ट राइटर आफ दिस कंट्री.

उनकी शुरू की कहानियों की कई लोगों, शिवप्रसाद सिंह आदि ने नकल की.'दो दुखों का एक सुख' यह भिखमंगों पर है, खाना नहीं मिलता है, उन्हीं के बीच प्रेम हो जाता है दो दुख मिलकर किस तरह से एक सुख में बदल जाते हैं. एक आत्मीय सुख. मैं तो बहुत सपाट ढंग से इस आइडिया को रख रहा हूं, उसने बहुत खूबसूरत ढंग से लिखा है. तो वे कहानियां तो याद रखने वाली कहानियां हैं. एक तरह से उनके उपेक्षित हो जाने का कारण उनका विचार के प्रति अतिरिक्त आग्रह है, जो निश्चित रूप से वर्णव्यवस्थावादी है, जो आउटडेटेड है , जो सामंती है.

आपने कहा कि उनके जो इस ढंग के विचार आ रहे थे वे पिछले पंद्रह सालों से आ रहे थे. क्या उससे पहले उन्हें भरपूर समर्थन मिला था अथवा नहीं?

वे हिंदी के एक महत्वपूर्ण लेखक माने जाते थे. वे बहुत ओजस्वी वक्ता थे. लेकिन उनके भीतर हमेशा यह कचोट बनी रही कि मुझमें जितनी प्रतिभा है जितना मैं महान चिंतन करता हंू उतनी मुझे रिकग्नीशन नहीं मिली. ये कष्ट उन्हें था. उसके लिए वे अनेक लोगों को जिम्मेदार मानते थे जिनमें से लेखकों के संगठनों को भी मानते थे.जिंदगीभर वे लेखक संगठनों को खासकर के वामपंथी प्रगतिशील विचारधारा के लेखक संगठनों गालियां देते रहे. वे ये कहते रहे कि ये चोरों के अड्‌डे हैं. ये बदमाशों का समूह है तो फिर इन संगठनों से क्या उम्मीद की जाए कि यही उनकी स्मृति में सभाएं करेंगे.

लेकिन यह एक व्यावहारिकता है और मैं इसका पक्ष नहीं ले रहा हूं. यह सही चीज है कि आप मुझे गालियां देते रहें तो ठीक है आप अच्छे लेखक होंगे लेकिन मेरे लिए कुछ नहीं हैं.

मटियानी को नागार्जुन ने भारत के सम्भावित गोर्की के रूप में देखा था. आपने कहा कि वे भारत के गोर्की होते-होते रह गए? इन दोनों स्थितियों तक आने का मुख्य कारण क्या रहा?

उनमें एक फांक पैदा हो गई. गोर्की में वो फांक नहीं है. गोर्की की रचनात्मकता और वैचारिकता में इतनी बड़ी दूरी नहीं है जितनी इनके बीच में है. वे सोचते एक तरह से थे और लिखते दूसरी तरह से थे. ये फांक लगभग वही है जो निर्मल वर्मा में दिखाई देती है. विचारों के रूप में वे शुद्ध हिन्दूवादी हैं, शुद्ध आध्यात्म वगैरह से जुड़े.अभी निर्मल ने जो कुछ कहा गुजरात वगैरह की स्थिति के बारे में, अप्रत्यक्ष रूप से यह सवाल था कि उस परिवेश से आप कहां तक प्रभावित हैं तो उन्होंने लगभग तरह-तरह की भाषाओं में वह कहा जो हमारे संत लोग कहते रहे हैं कि ये तो माया है. यह बाहरी दुनिया है. इस भ्रम में तो आदमी को नहीं रहना चाहिए.मनुष्य का वास्तविक क्षेत्र तो आत्मा है. उसे इसी का अनुसंधान करना चाहिए, लगभग यही बात कही अपनी आधुनिक भाषा में. दूसरी वे जिस भारतीयता की बात करते हैं उस भारतीयता का कहीं कोई पता उनके रचनात्मक लेखन में नहीं है. सिर्फ कुछ कर्मकांड हैं, कुछ अंधविश्वास हैं, तो वह भी उनके 'अंतिम अरण्य' उपन्यास में. कहीं कोई भारतीयता का जि नहीं है. एक कोलोनियल पास्ट है, गिरजे हैं, चर्चे हैं, कब्रिस्तान हैं, भुतहे खंडहर हैं, एकांत हैं, पुराने मकान हैं, बूढ़े लोग हैं, अपने में कैद बिल्कुल एक पश्चिमी अकेले, आइसोलेटेड आदमी का, एक्ज़ाइल्ड आदमी की मानसिकता का चित्रण है.अब वे भारतीय संस्कृति की बात करते हैं.अब ये जो द्वैत है, जो अन्तर्विरोध है बहुत ज्यादा मुखर और विकट रूप में शैलेश मटियानी में दिखाई देता है. लगभग मेरी लड़ाइयां रही हैं उनके विचारक व्यक्तित्व से और भयंकर प्रशंसक रहा हूं मैं उनके रचनात्मक लेखन का. मैंने उनकी कहानियां छाप दीं और जिन लेखों को नहीं छापा उनको लेकर उन्होंने मुझे गालियां भी दी हैं.जिस स्तर पर वे लेखों में उतर जाते थे वह मुझे बर्दाश्त नहीं होता था.

धर्मवीर भारती के द्वारा 'धर्मयुग' में एक पर्चा छाप दिए जाने को लेकर मटियानी ने भारती पर मुकदमा कर दिया था. भारती की वह कौन सी व्यक्तिगत रंजिश थी जिसको लेकर 'धर्मयुग' में एक मामूली पर्चे को इतनी तरजीह दी गई थी.

मटियानी उस समय इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ थे. धर्मवीर भारती आदि उनके समर्थक थे. बाद में जो पार्टी बने- जगदीश पीयूष, रवीन्द्र कालिया-ये सारे लोग.रवीन्द्र कालिया तो उस समय संजय ंसंह के दोस्त थे जो बाद में जनता पार्टी में आ गए थे. तो एक तरह से एक खुंदक थी कि यह आदमी क्यों इतना खुलकर बोलता है. मैं उस समय इमरजेंसी या ऐसी किसी एटीट्‌यूड के खिलाफ था जिनका समर्थन भारती कर रहे थे जो मेरी समझ में नहीं आ रहा था. पता ही होगा कि मसला क्या था. संजय गांधी मलिक मुहम्मद जायसी की समाधि पर फूल चढ़ा रहे हैं.एक दूसरे फोटो में शैलेश मटियानी भी जायसी की समाधि पर फूल चढ़ा रहे हैं. दोनों फोटो को एक पर्चे पर छापकर नीचे लिख दिया गया 'बादशाह तुम जगत के जग तोम्हार मोहताज'. ये अलाउद्दीन खिलजी के लिए लिखा गया था. लगता ये था कि ये सारे लेखक संजय गांधी की प्रशस्ति बोल रहे हैं कि 'बादशाह तुम जगत के और जग तोम्हार मोहताज.'

मटियानी का कहना था कि ये दो अलग अलग समय के चित्र हैं. इसके बीच में डेढ़ वर्ष का अंतर है. संजय गांधी के साथ कुछ लेखक फूल चढ़ा रहे हैं और कुछ लेखक अलग चित्र में जायसी की समाधि पर फूल चढ़ा रहे हैं. दोनों को एकसाथ देकर यह भ्रम पैदा किया है कि ये दोनों एक ही समय के चित्र हैं. और फिर इसको भारती ने समर्थन दिया था. उनका आग्रह सिर्फ यह था कि भारती इसको लेकर क्षमा मांगें. व्यक्तिगत रूप से नहीं, लिखित रूप से. भारती ने नहीं माना. रजिस्टर्ड नोटिस दिए, लोगों से कहलाया और अंत में जाकर मुकद्‌मा कर दिया और मुकदमा कर दिया तो टाइम्स आफ इंडिया वर्सेज़ शैलेश मटियानी हो गया.

आपने पिछले साल उनके निधनोपरांत कहा था कि वे एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिनकी 10-12 कहानियां विश्वस्तरीय हैं. क्या वे सचमुच एकमात्र ऐसे लेखक हैं?

एकमात्र नहीं, वे उन कहानीकारों में हैं जिनके पास सबसे अधिक संख्या में 10-12 की संख्या में ए-वन कहानियां हैं. प्रेमचंद सहित हम सब के पास 5-6 से ज्यादा टॉप की कहानियां नहीं हैं. जो कहानी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्वस्तर पर खड़ी हो सके. मेरे पास 2-4, भारती और राकेश के पास दो चार होंगी. बाकी की सभी एक मिनिमम स्टैंडर्ड हैं परंतु जिसे आउटस्टैंडिंग कहानी कहते हैं वो नहीं है. उनके पास सबसे ज्यादा हैं. हमलोगों में सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली आदमी.उनमें अनुभव की आग और तड़प है. हमलोग कहीं न कहीं बुकिश हो जाते हैं. ये जिंदगी से उठाई गई कहानियां लिखते थे.

उनका एक अद्‌भुत उपन्यास है 'गोपुली गफरन'. सुना है न . गोपुली पहाड़ की एक ब्राह्मण महिला है. धीरे-धीरे वह भगा कर मैदान में लायी जाती है और गफूरन बना ही जाती है. उसको जितनी आत्मीयता, संवेदना और अंडरस्टैंडिंग के साथ उन्होंने लिखा है, लेकिन बाद में किस तरह से मुसलमानों के खिलाफ लिखने लगे. 'इब्बू मलंग' उन्हीं की कहानी है. उन लोगों को जितनी भीतरी अंडरस्टैंडिंग, सिम्पैथी दी है वो वैचारिकता में उनका नाश करने वाली है.

उनकी कहानी की दुनिया मार्जिनलाइज़्ड की दुनिया है. गरीबों की दुनिया है. वह खुद जाति व्यवस्था से पीड़ित रहे. पहाड़ से भगा दिए गए. विचार की दुनिया में वे उसी का समर्थन करते हैं. ये भगाए गए थे इसलिए कि ये प्रॉपर ढंग से क्षत्रिय भी नहीं थे. कसाई थे. इनके परिवार में कसाई का काम होता था. यह उनको तकलीफ देता था. वहां के ब्राह्मणों ने मिलकर भगाया था. एक ब्राह्मण लड़की से प्रेम हो गया था जिस कारण उन्हें अल्मोड़ा छोड़ना पड़ा. उनकी जान को खतरा हो गया था.वो लड़की इनके अगेंस्ट हो गई थी.जो लड़की इनसे प्रेग्नेंट हो गई थी वही खुद इनके अगेंस्ट हो गई. उसने कहा था कि यह बहकाकर-भगाकर मैदान में उसे बेचना चाहता था. तो जाति व्यवस्था के कारण उन्होंने इतनी यातना बर्दाश्त की.बाद में वेे इसी वर्णव्यवस्था का समर्थन करने लगे. वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने बारे में बोलते हैं जो वर्णव्यवस्था का दूसरा रूप है. मेरी लड़ाई इसी बात से थी कि आप अपनी जिंदगी के अनुभवों से कहानी तो लिख सकते हैं परंतु सोच कुछ नहीं सकते. अक्सर उनसे मेरी भयंकर लड़ाइयां हैं. चिट्ठियां भी हैं. उनके मेरे पत्रों की ढाई-तीन सौ पृष्ठों की एक किताब है. और भी इतनी और चिट्ठियां रखी हैं कि एक दो किताबें और बन जाएं.

अंत में वे पागल हो गए. छह सात बार ऐसा भी हुआ कि उन्हें जंजीरों में पकड़कर बांधकर रखना पड़ता था. लगभग यही स्थिति स्वदेश दीपक की थी.सात साल पागल रहा.इलाज हुआ उसका. उसने 'कोर्ट मार्शल' लिखा है. अभी उसने पागलपन की स्थिति पर अद्‌भुत संस्मरण लिखा है जिसमें से एक अभी 'कथादेश' में छपा था. यानी उस पीरियड को भी कैसे रचनात्मक ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है यह स्वदेश दीपक का अनुभव बताता है.

निराला, भुवनेश्वर, मुक्तिबोध और अब मटियानी क्या इन सबके साथ जो कुछ हुआ उसको देखकर ऐसा नहीं लगता कि एक लेखक सहायता कोष बनाया जाना चाहिए ताकि उन लेखकों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए राजनेताओं-अफसरों की चिरौरी न करनी पड़ी?

शुरू में मेरा एक कहानी संग्रह निकला था- 'देवताओं की मूर्ति' और अभी संस्मरण की किताब आई है- 'वे देवता नहीं हैं'. दोनों में अद्‌भुत साम्य है. उसमें भी एक ऐसे लेखक का चित्रण है जो देवतापन से आक्रांत है कि वह सबसे अलग है, महान है आदि. हम लोग एक तरह से उन्हें देवताओं की मूर्तियों की तरह स्थापित कर देते हैं.

इन सभी की ट्रेजेडी यह है कि जितने प्रतिभाशाली ये थे इतनी मान्यता उन्हें नहीं मिली, उतनी स्वीकृति नहीं मिली. उससे भी ज्यादा तकलीफ इस बात की है कि जिनमें कम प्रतिभा थी वो लोग अपने संपर्कों से, साधनों से, तिकड़मों से टॉप पर चले गए. ये एक स्थिति है जिससे मेरा ख्याल है मुक्ति संभव नहीं है. उपेक्षा का क्षेत्र और अनपेक्षित लोगों का जरूरत से ज्यादा अवसरों का दोहन. भुवनेश्वर जैसा ब्रिलियंट राइटर जो 'कारवां', 'भेड़िये' जैसी कहानी लिख सकता था. निराला, मटियानी के साथ भी यही हुआ.

मेरा प्रश्न था आर्थिक सहायता कोष के ढंग का कुछ बनाया जा सकता है.

आर्थिक सहायता भी जरूरी है परंतु उनकी समस्या आर्थिक नहीं है. आर्थिक सहायता का महत्त्व है या आर्थिक सहायता भी होनी ही चाहिए. मुझे नहीं मालूम कि ऐसा मेरे साथ होता तो क्या होता. लेकिन हमलोगों को इन सभी पर सहानुभूति से सोचना चाहिए. ये वाकई अनचैरिटेबल और अनसिम्पैथेटिक होगा कि अपनी इन स्थितियों के लिए वे खुद जिम्मेदार थे.

इसी संबंध में उनके द्वारा गोविंद मिश्र को लिखे पत्र का एक अंश याद आता है कि खासकर वामपंथी आलोचक लेखकों ने उनके लिए वे सारे दरवाजे बंदकर दिए जहां से उन्हें आर्थिक सहायता मिल सकती थी.

वे लोग उनकी सहायता कैसे कर सकते थे. साहित्य अकादेमी में उनकी स्मृति में गोष्ठी के लिए हॉल मांगा गया. उन्होंने यह कहते हुए हॉल देेने से मना कर दिया कि जो व्यक्ति जीवन भर अकादेमी की आलोचना करता रहा उसके लिए वे कैसे हाल दे सकते हैं. इसमें कहां से वामपंथ आ गया. चूंकि वामपंथी उनके विचारों को मान्यता नहीं देते थे इसलिए उन्हें शिकायत थी. इसलिए उन्हें लगता था कि जो उनका विरोध कर रहा है वह वामपंथी है. भारती कौन से वांमपंथी थे? जगदीश पीयूष कौन से वामपंथी थे? गलत ढंग से चीजों को अपने लिए बिन्दु कर लेने की एक मानसिकता एक पैरानोइया हो जाता है. भारती का तो दुश्मन भी नहीं कह सकता कि भारती वामपंथी थे और सबसे बड़ी सुप्रीम कोर्ट तक चलने वाली लड़ाई भारती से ही हुई.

आपको मटियानी की एक सबसे अच्छी कहानी और एक सबसे अच्छा उपन्यास चुनने को कहा जाए तो आप कौन सा चुनेंगे.

अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं उनकी सबसे अच्छी कहानी 'अर्द्धांगिनी' को मानूंगा. उपन्यासों में तय करना थोड़ा सा मुश्किल है फिर भी 'बोरीवली से बोरीबंदर तक'.

'अर्धांगिनी' में स्त्री पुरूष के बीच का जो डेलिकेट रिलेशन है उसे उन्होंने बहुत ही लिरिकल ढंग से रखा है. बंबई के फुटपाथों की जिंदगी को 'बोरीवली से बोरीबंदर तक' में लिखा है जिसके लिए बाद में 'मुरदाघर' के रचनाकार जगदंबा प्रसाद दीक्षित मशहूर हुए. बाद में वे भी बीजेपी में चले गए. सारी वैचारिक घोषणाओं के बावजूद आज भी वे माले का अपने को कहते हैं परंतु समर्थन वे हिंदुत्व का, शिवसेना का करते हैं.

3 comments:

रवि रतलामी said...

बातचीत भले ही पुरानी रही हो, पर साक्षात्कार पठन-पाठन में अब भी प्रासंगिक है. शैलेश मटियानी के व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में भी पता चला.

Anonymous said...

शैलेश मटियानी,कुबेरनाथ राय,भवानी प्रसाद मिश्र और शरद जोशी -- ये कुछ ऐसे बड़े लेखक हैं जिनका वास्तविक मूल्यांकन नहीं हुआ या नहीं होने दिया गया .

यह एक किस्म का बौद्धिक 'माइओपिया' है, साहित्यिक आलोचना की राजनीति है या साहित्यिक हलके की एक खास किस्म की असहिष्णु पार्टीबंदी इस पर सम्यक विचार होना चाहिए .

साक्षात्कार से बहुत कुछ तो सामने आता ही है . राजेन्द्र यादव के इस साक्षात्कार में एक खास किस्म की ईमानदार बेबाकी और विकलता झलकती है .

निशाचर said...

राजेंद्र यादव हिन्दू और हिंदुत्व के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं. जिस प्रकार बचपन में यौन शोषण होने पर कोई बच्चा बड़े होने पर भी व्यस्कों के प्रति पूर्वाग्रह जनित भय से ग्रस्त रहता है उसी प्रकार यादव जी बचपन में पोंगा पडितों द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के कारण पूरे हिन्दू धर्म और दर्शन के प्रति घृणा का भाव रखते है जो कि एक मानसिक विकृति है . अगर हिन्दू धर्म और हिन्दू वादी दर्शन इतना कमजोर होता तो वह आज तक शेष न रहता. यादवजी को इलाज की जरूरत है.साहित्यिक वृत्त में मठाधीशी का प्रचालन ना होता तो यादव जी स्वयम भी कोई ऐसे विचारक नहीं हैं की उन्हें महत्व मिल पता. प्रेमचंद्र जी के हंस को संपादित करने की योग्यता आप साबित नहीं कर पाए.